एक रिक्शा चालक के मानव अधिकार


पत्ता गाने लगा,

पहले पहला, फिर दूसरा, और फिर तीसरा,

सड़के अभी भी आग बरसा रहीं थी,

पर जैसे ही मैंने रिक्शे की पहली पेंडल मारी,

हवायें चलने लगी और पत्ते गाने लगी,

पत्तों के संगीत में शायद कुछ हाथ उसका भी था,

जो पीछे नारंगी साड़ी पहने अप्सरा सी बैठी थी,

बस स्टैंड जाना था उसे, और मैं रिक्शे को जहाज़ बना देना चाहता था,

पर उसे समाचार कहाँ था, मेरे मन का,

वह तो गुम थी, सिगरेट पीने में, और बतिआने मैं, फ़ोन पर,

“मानव अधिकारों से बढ़कर मेरे लिए कुछ भी नहीं” वो बोली,

और फिर सिगरेट का धुआं मेरी तरफ फेंका,

ऐसे की जैसे मैं दानव था।। पर मैं चुप रहा

फिर धुआं भी तो इतना था की जैसे सिगरेट मैं पी रहा था, मैं गुम हो गया

“इक ये चपन गंजु इतना धीरे काहे चला रहा है बे,” वो गिरयाई!!

मैं फट से ब्रेक मारा और फट से उतर गया

“उतरो, उतरो, तुम्हारी माँ की च ,” मैं रुक गया

वह मेरे मुंह पे थूक के चली गयी।।

वह अभी भी मानव अधिकारों के बारे मैं बात कर रहीं थी

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